रणथंभौर दुर्ग का इतिहास - Ranthambore Fort History in Hindi

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Ranthambore Fort History in Hindi

रणथंभौर दुर्ग का इतिहास - Ranthambore Fort History in Hindi

रणथंभौर दुर्ग का वास्तविक नाम 'रंतःपुर' है अर्थात् 'रण की घाटी में स्थित नगर।' रण उस पहाड़ी का नाम है, जो किले की पहाड़ी से कुछ नीचे है एवं थंभ (स्तंभ) उस पहाड़ी का नाम है जिस पर यह किला बना है। 
इसी से इसका नाम 'रणस्तंभपुर' (रणथंभौर) हो गया।
इतिहासकार हीराचंद ओझा के अनुसार रणथंभौर का किला अण्डाकृति वाले एक ऊँचे पहाड़ पर स्थित है। 
इसके चारों ओर की पहाड़ियों को किले की रक्षार्थ किले की दीवार कहा जाता है। 
  

रणथंभौर दुर्ग अंडाकार ढाँचे में सात पहाड़ियों के मध्य स्थित है। 

यह दुर्ग 'गिरि दुर्ग' व 'वन दुर्ग' की श्रेणी में आता है।
इस दुर्ग के निर्माता और निर्माण तिथि के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं, परंतु हम्मीर महाकाव्य, हम्मीर रासो आदि काव्य ग्रंथों, जैन आचार्यों के ग्रंथों, राजाओं की वंशावली और विरुद्धावलियों के आधार पर कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैं
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, 8वीं शताब्दी के लगभग महेश्वर के चंद्रवंशी 'राजा रंतिदेव' (जिनका राज्य चंबल नदी के पास था) ने इस किले को बनवाया। 
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, 944 ई. में सपादलक्ष के चौहान राजा 'रणथान देव' ने बनवाया था। 
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, चंदेल राजपूत 'राव जैता' ने 8वीं शताब्दी में इस दुर्ग का निर्माण करवाया। 
सर्वाधिक मान्य तथ्य यह है, कि इसका निर्माण 8वीं शताब्दी के लगभग अजमेर के चौहान शासक राजा जयंत द्वारा कराया गया। 

रणथंभौर दुर्ग में तराइन के द्वितीय युद्ध 1192 ई. के पश्चात् पृथ्वीराज तृतीय के पुत्र गोविंदराज ने चौहान वंश की नींव रखी थी। 

इस चौहान वंश का सबसे वीर व पराक्रमी शासक हम्मीर देव चौहान था।
यह दुर्ग चारों ओर पहाड़ियों से घिरा है, जो इसकी प्राकृतिक दीवारों का काम करती है जिसे अबुल फजल ने देखकर कहा, कि यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में है इसीलिए लोग कहते हैं कि "और दर्ग नंगे हैं परंतु यह दुर्ग बख्तरबंद है।"
इस दुर्ग को 'दुर्गाधिराज', 'हम्मीर की आन-बान का प्रतीक') आदि नामों से भी जाना जाता है। 
नयनचंद्र सूरी कृत 'हम्मीर महाकाव्य', जोधराज कृत 'हम्मीर रासो', चंद्रशेखर कृत 'हम्मीर हठ' तथा गोडऊ व्यास कत हम्मीरायण' आदि ग्रंथों से हम्मीर के व्यक्तित्व की जानकारी मिलती है।  
रणथंभौर दुर्ग दिल्ली, मालवा एवं मेवाड़ से निकटता होने के कारण इस दुर्ग पर बार-बार आक्रमण होते रहे थे। 

रणथंभौर दुर्ग पर सर्वप्रथम कुतुबुद्दीन ऐबक ने आक्रमण किया। 

1291-92 ई. में सुल्तान जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने रणथंभौर दुर्ग पर दो बार आक्रमण किया परंतु उसने दुर्ग की कड़ी सुरक्षा व्यवस्था देखकर यह कहते हुए कि "ऐसे 10 किलों को तो मैं मुसलमानों के मूंछ के एक बाल के बराबर भी नहीं समझता।" वापस चला गया।

रणथंभौर दर्ग में स्थित द्वार 

नौलखा दरवाजा-रणथंभौर दुर्ग का मुख्य प्रवेशद्वार नौलखा दरवाजा है जिस पर एक लेख खुदा हुआ है।
इस लेख के अनुसार इस दरवाजे का जीर्णोद्धार जयपुर के महाराजा जगतसिंह ने करवाया था।
तोरण दरवाजा-नौलखा दरवाजे के बाद एक तिकोणी (तीन दरवाजों का समूह) दरवाजा आता है जिसे चौहान शासकों के काल में 'तोरण द्वार', मुस्लिम शासकों के काल में 'अंधेरी दरवाजा' और जयपुर के शासकों द्वारा 'त्रिपोलिया दरवाजा' कहा जाता था।
हाथीपोल, गणेशपोल व सूरजपोल इस दुर्ग के अन्य प्रमुख प्रवेश द्वार हैं।

दुर्ग में स्थित दर्शनीय स्थल 

जोगी महल

दुर्ग के प्रवेश द्वार के बाँयीं ओर 'जोगी महल' है जिसे राजा ने एक ऋषि के रहने के लिए बनवाया था। 
किंतु कालांतर में यहाँ साधुओं के डेरे लगने लग गए इसलिए इसका नाम 'जोगी महल' पड़ गया। 
1961 ई. में राजस्थान सरकार के वन विभाग ने इसका नवनिर्माण करवाया। 
आजकल यह पर्यटकों का विश्रामगृह बना हुआ है।

जैतसिंह की छतरी

चौहान राजा हम्मीर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद उसकी समाधि पर लाल पत्थरों से 432 विशाल खंभों वाली 50 फुट ऊँची छतरी बनवाई, जिस पर बैठकर हम्मीर देव न्याय करता था, अत: इस छतरी को न्याय की छतरी' भी कहते हैं। 
इसी छतरी के नीचे गर्भगृह में काले भूरे रंग के पत्थर से निर्मित एक शिवलिंग है। 

अधूरा स्वज/अधूरी 

छतरी-जैतसिंह की छतरी के पास ही लाल पत्थर की अधूरी छतरी है जिसे मेवाड़ के राणा साँगा की 'हाडा रानी कर्मावती' ने बनवाना शुरू किया, परंतु उसके चले जाने के कारण यह छतरी अधूरी रह गई।

गणेश मंदिर

इसका निर्माण चौहान शासकों ने करवाया। 
राजस्थान में एकमात्र 'त्रिनेत्र गणेशजी का मंदिर यहीं पर है।
 यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शक्ल गणेशचतुर्थी को एक विशाल मेला भरता है।
ध्यातव्य रहे-इस दुर्ग के गणेश मंदिर के पूर्व में एक अज्ञात जलस्त्रोत है, जिसे गप्त गंगा कहा जाता हैं।

शिव मंदिर

गणेश मंदिर के पीछे शिव मंदिर स्थित है। 
जनश्रुति के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी को परास्त करके विजयी हम्मीर ने जब अपनी रानियों के जौहर की घटना सुनी तो उन्होंने अपने आराध्य देव शिव को अपना सिर काटकर अर्पित कर दिया।

हम्मीर कचहरी

चौहान शासक हम्मीर इस कचहरी में बैठकर प्रजा को न्याय प्रदान करते थे।
पीर सदरुद्दीन की दरगाह-इसका निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने करवाया।

पदमला तालाब

इसमें हम्मीर की रानी 'रंगदेवी' के नेतृत्व में वीरांगनाओं ने 11 जुलाई, 1301 ई. में जल जौहर किया।
सुपारी महल-इस दुर्ग में बना सुपारी महल भावनात्मक एकता का जीता जागता उदाहरण है। 
क्योंकि राजस्थान के एकमात्र रणथंभौर दुर्ग का सुपारी महल ही ऐसा स्थान जहाँ एक ही स्थान पर 'मन्दिर, मस्जिद व गिरिजाघर' हैं जो हिंदु-मुस्लिम तथा ईसाई संस्कृति के समन्वय का अनूठा उदाहरण पेश करते हैं।

हम्मीर महल

इस दुर्ग का मुख्य आकर्षण हम्मीर का महल है, जो करौली के लाल पत्थरों से बना हुआ है।
बादल महल, जौरा-भौंरा महल (अनाज रखने के गोदाम), लक्ष्मीनारायण मंदिर (भग्न रूप में), रणत्या की डूंगरी, रणिहाड तालाब आदि अन्य दर्शनीय स्थल।

रणथंभौर दुर्ग का साका

 इतिहासकारों के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मंगोल मीर मुहम्मद शाह सुल्तान की मराठा बेगम 'चिमना/कामरू' से प्रेम करता था। 
बेगम ने सेनानायक के साथ मिलकर अलाउद्दीन को समाप्त करने का षड्यंत्र रचा, लेकिन खिलजी को इसका पता चल गया।
मुहम्मदशाह व बेगम वहाँ से भागकर हम्मीर की शरण में रणथंभौर चले गए। 
अलाउद्दीन ने हम्मीर को पत्र लिखा की दिल्ली सुल्तान के मन में हम्मीर के प्रति किसी प्रकार का व्यक्तिगत द्वेष नहीं है। 
यदि वह शरणागता को मार दे या उन्हें सौंप दे, तो शाही सेनाएँ वापिस दिल्ली लौट जाएगी किंतु हम्मीर अपने वचन का पक्का निकला और उसने शरणागतों को मारने व सौंपने से मना कर दिया। 
इसी हठ के कारण हम्मीर ने अपना परिवार, राज्य व सब कुछ खो दिया इसीलिए हम्मीर के लिए उक्ति प्रसिद्ध है - 
   "सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन कदली फलै इक बार।
तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार॥" 
अर्थात्-सिंहनी एक बार बच्चा देती है, सत्पुरुष एक बार जो कह देते हैं, वह अटल है। 
केले में एक बार फल आता है। 
स्त्री व पुरुष के एक बार तेल चढ़ता है। 
इसी तरह हम्मीर देव ने एक बार जो तय कर लिया वह टल नहीं सकता।
तब अलाउद्दीन ने रणथंभौर पर 1300 ई. में घेरा डाला। 
एक वर्ष की लंबी घेराबंदी पर भी अलाउद्दीन को सफलता न मिली तो उसने छल-कपट का सहारा लिया। 
अलाउद्दीन ने हम्मीर के 'रणमल' व 'रतिपाल' नामक दो सेनापतियों को बूंदी के परगने का लालच देकर अपनी ओर मिलाकर दुर्ग के खाद्यान्न में हड्डियाँ डलवाकर उसे अपवित्र कर दिया। 
इस कारण दुर्ग में खाद्यान्नों का संकट उत्पन्न हो गया। 
ऐसी स्थिति में हम्मीर ने दुर्ग में भूखे मरने की जगह शत्रु से लड़ते हुए मरना उचित समझा। 
 

राजपूत सैनिकों ने 11 जुलाई, 1301 ई. में 'केसरिया' किया। 

 हम्मीर की रानी रंगदेवी' के नेतृत्व में राजपूत रानियों ने 'जल जौहर' किया। 
यह राजस्थान का प्रथम जल जौहर व साका था। 
हम्मीर देव की पुत्री देवलदे ने इस युद्ध में जल जौहर (पद्म तालाब) में कूद कर जौहर किया था, इसलिए इसे 'जल जौहर' भी कहा जाता है।
13 जुलाई, 1301 ई. के दिन रणथंभौर पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया। 
अलाउद्दीन ने अपनी धर्मांधता का प्रदर्शन करते हुए मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने के आदेश दिये जिस कारण अमीर खसरों ने रणथंभौर दुर्ग के बारे में लिखा है, कि "कुफ्र का गढ़ इस्लाम का घर हो गया।"
बाद में आमेर नरेश मानसिंह ने रणथंभौर दुर्ग को शिकारगाह के रूप में परिवर्तित करवाया था। 
इसके बाद आमेर नरेश पृथ्वीसिंह और सवाई जयसिंह ने दुर्ग का जिर्णोद्धार करवाया तथा सवाई माधोसिंह ने इसी के समीप अपने नाम से 'सवाई माधोपुर' नामक नगर बसाया।
सवाई माधोसिंह ने रणथंभौर दुर्ग को पचेवर के अनूपसिंह खंगारोत के प्रयासों से जयपुर राज्य में मिलाया तथा इसी दुर्ग पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए जयपुर रियासत व मराठी क बीच कक्कोड़ (उणियारा) का युद्ध हुआ।

बाबर के विरुद्ध खानवा युद्ध में लड़ते हुए घायल हो जाने पर महाराणा सांगा को रणथंभौर दुर्ग में लाया गया था। 

मेवाड़ के महाराणा सांगा की 'हाडा रानी कर्मावती' ने रणथंभौर दुर्गचित्तौड़ आक्रमण के समय संधि के तहत् यह दुर्ग गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह को दिया तो शेरशाह सूरी ने इस दुर्ग पर अधिकार कर अपने पुत्र आदिल खाँ को यहाँ का दुर्गाध्यक्ष बनाया। 
मुगल काल (अकबर के शासन काल) में रणथंभौर दुर्ग को शाही कारागार के रूप में उपयोग करते थे एवं यहीं पर अकबर ने शाही टकसाल बनवाई। 
अकबर से पूर्व यहाँ का शासक बूंदी का शासक 'सूरजन हाड़ा' था। 
अकबर ने रणथंभौर दुर्ग की जागीरी आमेर के जगन्नाथ कछवाहा को दी तो शाहजहाँ ने रणथंभौर दुर्ग की जागीरी अपने सेनापति विट्ठलदास गौड को दी। 
वीर विनोद के लेखक 'कविराजा श्यामलदास' निवासी भीलवाड़ा ने दुर्ग के दुर्भध स्वरूप को प्रकट करते हुए लिखा है-
"रणथंभौर के हर तरफ गहरे और पेचदार नाले व पहाड़ हैं, जो तंग रास्तों से गुजरते हैं।"

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