उत्तर-वैदिक काल (वैदिक सभ्यता)

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उत्तर वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति

उत्तर-वैदिक काल को 'परिवर्तनशील काल' (Transitional Phase) कहा जाता है।
इस काल के साहित्यिक स्रोतों में तीनों वेद-सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थ एवं उपनिषद प्रमुख हैं।
पुरातात्त्विक साक्ष्यों में उत्तरवैदिककाल में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड एवं लोहे के प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
उत्तर-वैदिककाल में स्थायी ग्राम व्यवस्था का आविर्भाव एवं कवीलाई तत्त्वों का पतन होने लगा था।
उत्तर-वैदिककाल में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था।
उत्तर-वैदिककालीन साहित्य 1000-600 ई.पू. के मध्य गंगा के ऊपरी मैदान में लिखी गई।

उत्तर-वैदिक काल (वैदिक सभ्यता)

जिसके फलस्वरूप उत्तर-वैदिकयुगीन संस्कृति का काल 1000-600 ई. पू. के मध्य माना जाता है।
उत्तर-वैदिककालीन साहित्य के अनुसार इस काल के आर्य पंजाब से चलकर गंगा और यमना के मध्य सारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैल गए थे।
इस काल के उत्खनित स्थलों में हस्तिनापुर, कौशाम्बी एवं अहिच्छत्र प्रमुख थे।
उत्खनन और अनुसंधानों के फलस्वरूप उत्तर-वैदिककालीन संस्कृति के 700 स्थल प्रकाश में आये हैं, जहाँ सबसे पहले वस्तियाँ स्थापित हुई थी।
इन बस्तियों को चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grayware) या पी. जी. डब्ल्यू स्थल कहते हैं।
भारत और पुरू नामक कबीले मिलकर उत्तरवैदिककाल में कुरू नाम से जाने गये, उन्हीं के नाम पर 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा।

उत्तर-वैदिककालीन राजनीति एवं प्रशासन

साहित्यिक ग्रन्थों में आर्यों के मध्यदेश एवं कुरुक्षेत्र तक प्रसार के साक्ष्य मिलते हैं।
'शतपथ ब्राह्मणम्' के अनुसार आर्यों का प्रसार सदानीरा या गण्डक नदी तक हो चुका था।
दक्षिणी क्षेत्र में विदर्भ तक आर्य प्रसारित हो चुके थे।

     उत्खनन से निम्नलिखित स्थलों पर उत्तर-वैदिककालीन लोहे के हथियार (वाणाग्र, बरष्ठी, शीष) प्राप्त हुए हैं -
1. हस्तिनापुर
2. आलमगीरपुर
3. नोह
4. अंतरजीखेड़ा
5. बटेसर
उत्तर-वैदिककाल में कवीलों का स्थान क्षेत्रीय राज्यों ने ले लिया था।
वैदिककालीन तुर्वश एवं क्रिवी ने मिलकर पांचाल कवीले को जन्म दिया।
करु एवं पांचालों ने मिलकर हस्तिनापुर (मेरठ) में अपनी राजधानी स्थापित की।
950 ई. पू. कुरु कबीलों के दो गुट-कौरव एवं पांडवों में भरत-युद्ध हुआ, जिसमें कुरु-कवीले का विनाश हुआ।
महाभारत नामक महाकाव्य में इसी युद्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है।
हस्तिनापुर वाढ़ से नष्ट हो गया एवं वहाँ के शेष कुरु कवीले के लोग कौशाम्बी में बस गये।
दार्शनिक एवं विद्वानों के कारण प्रसिद्ध 'कांपिल्य' पांचालों की राजधानी थी।
राजा प्रवाहक जावालि पांचालों का प्रसिद्ध दार्शनिक था।
विदेह की राजधानी 'मिथिला' के राजा जनक थे।

     इस काल के निम्नलिखित क्षेत्रीय राज्यों का उल्लेख मिलता है-
1. काशी
2. कोशल
3. विदेह
4. गांधार
5. कैकेय
6. मद्र
7. मत्स्य
8. मगध
9. अंग
उत्तर-वैदिककालीन क्षेत्रीय राज्यों का उदय सैन्य शक्ति के आधार पर हुआ था।
पैतृक राजतन्त्र की अवधारणा का विकास होने लगा था।
उत्तर-वैदिकयुग में राजा के अधिकारों एवं शक्ति में वृद्धि हो गई थी तथा राष्ट्र राजा के हाथों में आ गया था।
तत्कालीन राजतंत्र क्षेत्रीय थे।

    विभिन्न राजतन्त्रों का प्रकार निम्नवत् है -
1. प्राची में सम्राट्
2. दक्षिण में भोज्य
3. प्रतीची में स्वराज्य
4. उदीची में वैराज्य

   उत्तर-वैदिककाल के राजा निम्न उपाधियाँ धारण करने लगे थे-
1. राजाधिराज
2. सम्राट
3. अधिराज
4. विराट
5. एकराट
6. सार्वभीम

     उत्तर-वैदिककाल राजत्व प्राप्ति के लिए राजा निम्न यज्ञ करते थे-
1. राजसूय
2. वाजपेय
3. अश्वमेध
4. इन्द्रमहाभिषेक
'आपस्तम्ब श्रौतसूत्र' के मतानुसार सार्वभौम राजा को ही 'अश्वमेध यज्ञ' करने का अधिकार था।

'गोपथ ब्राह्मण' के अनुसार अलग-अलग राजा निम्नलिखित यज्ञ करने की योग्यता रखते थे-
1. राजा-राजसूय
2. सम्राट्-वाजपेय
3. विराट-पुरुषमेध
4. स्वराट-अश्वमेध
5. सर्वराट-सर्वमेध
राजपद के वंशानुगत होने एवं क्षेत्रीय राज्यों के उदय होने के फलस्वरूप सभा, समिति, विदथ आदि कबीलाई संस्थाओं का पतन हो गया था।
उत्तर-वैदिककालीन प्रशासन में सेनानी, पुरोहित, ग्रामणी, राजन्य (राजकृतियों) की भागीदारी होने लगी थी।

उत्तर-वैदिककालीन सामाजिक व्यवस्था

उत्तर-वैदिककालीन समाज में कर्म से अधिक वर्ण को महत्त्व दिया जाने लगा था
ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, समाज के सर्वश्रेष्ठ वर्ग माने जाते थे.
 ये दोनों उत्पादन के नियन्त्रक थे.
वैश्य और शूद्र इस युग के उत्पादक थे, जिन्हें किसी भी तरह की सुविधा प्राप्त नहीं थी.
सभी चारों वणों की दिनचर्या, खान-पान, आचार-विचार एवं विवाह सम्बन्धी नियम अलग-अलग ये ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य उपनयन संस्कार के अधिकारी थे, लेकिन शूद्रों को उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं था.
शूद्रों को अछूत एवं अस्पृश्य माना जाता था. उनके छूने को निदंदनीय माना जाता था।

निम्नलिखित वर्गों को वर्णव्यवस्था से अलग रखा गया था, ये अतिनिम्न श्रेणी में आते थे-
1. पुलिंद
2. शवर
3. व्रात्य
4. निषाद
5. आन्ध्र
6. पुण्ड

श्रेष्ठता एवं अधिक धन प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण एवं क्षत्रियों में संघर्ष होते थे.
ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ, क्षत्रियों को दूसरे स्थान पर एवं उत्पादन करने वाले वैश्यों को तीसरे स्थान पर माना जाता था.
वैश्य सैनिक सेवाएँ भी देते थे.
शूद्र सबसे निम्नतर वर्ग था.
शूद्र उच्च वर्गों की सेवा करते थे एवं अनेक प्रतिबन्धों को सहते थे.
शूद्र धार्मिक कर्मकाण्डों में भाग नहीं ले सकते.
उत्तर-वैदिककाल में अन्तरजातीय विवाह का प्रचलन था, लेकिन शूद्रों से विवाह करना धर्मविरोधी, निदंनीय एवं कुकृत्य माना जाता था.
आगे चलकर वर्णव्यवस्था की जटिलता के फलस्वरूप जाति व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ.
उत्तर-वैदिक साहित्य में भूमि के दान एवं भूमि की खरीद का उल्लेख मिलता है.
स्त्री दासियों उच्च वर्ण के लोगों के अनाज की पिसाई का कार्य करती थीं.
उत्तर-वैदिककाल में पितृसत्तात्मक तत्त्व प्रवल हो गया था.
जिसके फलस्वरूप पुत्रियों का जीवन अभिशाप समझा जाने लगा था.
'ऐतरेय ब्राह्मण' के अनुसार पुत्र परिवार का रक्षक एवं पुत्रियाँ दुःख का मूल थीं.
'मैत्रायणीसंहिता' के मतानुसार जुआ और शराब के साथ स्त्रियाँ भी पुरुष के लिए एक दुर्गुण थी.
उच्च वर्गों में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी.
पहली पत्नी को मुख्य पत्नी मानकर उसे विशेषाधिकार प्रदान किये जाते थे.
कन्याओं के वेचने एवं दहेज लेने की प्रथा उत्तर-वैदिककाल में प्रचलन में आने लगी थी.
स्त्रियाँ पुरुषों के नियन्त्रण में ही शिक्षा, संगीत, कला आदि का ज्ञान प्राप्त करती थी.
एक आर्य की आय 100 वर्ष मानकर सामाजिक व्यवस्था में आश्रम प्रणाली प्रचलित थी.
आश्रम क्रमशः 25. 25 वर्ष की अवधि के निम्नलिखित चार थे
1. ब्रह्मचर्याश्रम-प्रथम 25 वर्ष
2. गृहस्थाश्रम-25 से 50 वर्ष की अवधि
3. वानप्रस्थाश्रम-50 से 75 वर्ष की अवधि
4. संन्यासाश्रम-75 से 100 वर्ष की अवधि
ब्रह्मचर्याश्रम में कठोर नियम, अनुशासन के साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी.
गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर विवाह कर पुत्र पैदा करना एवं अतिथि सत्कार करना प्रमुख लक्ष्य था.
यह सर्वश्रेष्ठ आश्रम था, जिसमें पुत्र अपने पिता के कर्ज से मुक्त होता था.
वानप्रस्थाश्रम में त्याग का जीवन व्यतीत करना पड़ता था.
संन्यासाश्रम में घूमते हुए संन्यासी का जीवन व्यतीत कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना पड़ता था.
धूम-घूम कर उपदेश देने के कारण संन्यासियों को परिव्राजक' कहा जाता था.

     उत्तर-वैदिककाल में उच्च वर्ण के लोगों को निम्न ऋणों से उऋण होना अत्यावश्यक था -
1. देवऋण
2. ऋषित्रण
3. पितरऋण
4. मानवीय ऋण
उत्तर-वैदिककाल में निम्नलिखित चार पुरुषार्थ तत्कालीन मानव के प्रमुख लक्ष्य थे-
1. धर्म
2. अर्थ
3. काम
4. मोक्ष
शूद्र और स्त्रियों को छोड़कर सबका उपनयन संस्कार कराना अत्यावश्यक था.
विद्यार्थी भी उपनयन संस्कार कराता था.
शिक्षण संस्थाएँ अनुदान से चलती थीं.
राजा द्वारा शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जाती थी.
12 वर्ष तक गरुकल में विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी.
शिक्षा मौखिक थी।

उत्तर-वैदिककाल में शिक्षा प्रदान करने के विषय -

1. ब्रह्मविद्या
2. देवविद्या
3. भूतविधा
4. नक्षत्रविद्या
5. इतिहास
6. तर्कशास्त्र
7. उपनिषद
8. स्वाध्याय
9. प्राणायाम
10. चारित्रिक एवं शारीरिक सुधार

उत्तर-वैदिकयुगीन आर्थिक स्थिति

उत्तर-वैदिककाल में आर्य स्थायी ग्रामों में निवास करने लगे थे.
कृषि उनके जीवन का मूलभूत आधार बन चुकी थी.
उत्तर-वैदिक साहित्य में 'धातु वाले चोंचयुक्त फाल का' उल्लेख प्राप्त होता है.
पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, विहार, बंगाल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 900 ई. पू. अवधि के उत्खनन से लोहे के प्रमाण प्राप्त हुए हैं.
500 ई. पू. का लोहे का बना हल का फाल जखेड़ा (वर्तमान एटा उत्तर प्रदेश) से उत्खनन के दौरान प्राप्त हुआ है
श्याम अयस् नामक धातु का वर्णन साहित्य में कई बार हुआ है, जो कृषि उपकरण बनाने के काम में आती थी.
अंतरजीखेड़ा एवं हस्तिनापुर से इस काल में जो, गेहूँ, चावल एवं जंगली गन्ने की खेती के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं.
खादिर एवं कत्था लकड़ियों से विशाल हल बनते थे.
काटकसंहिता में 24 बैलों से हल खींचने का उल्लेख मिलता है.
 उत्तर-वैदिककाल में सिंचाई एवं गोबर के खाद देने की विधि का विकास हो चका था.
पशओं में भैंस भी अव आर्यों द्वारा अपनाई जाने लगी थीं. दूध, ऊन, चमड़ा, माँस के कारण पशुओं का व्यापारिक उपयोग होने लगा था.

वाजसनेयी संहिता में उत्तर-वैदिककाल के व्यवसायी वर्ग 

1. मछुआरा
2. गड़रिया
3. मणिकार
4. स्वर्णकार
5. धोबी
6. लुहार
7. कुम्भकार
8. रंगसाज
9. जुलाहा
10. रस्सी एवं टोकरी निर्माता
11. सारथी

उत्तर-वैदिककाल में रंग-बिरंगे बर्तनों का निर्माण होता था, जिन्हें चित्रित-धूसर मृदुभाण्ड (P.G.W. या Painted Grey Ware) कहा जाता था.
उत्तर-वैदिककाल में व्यवसायी संगठन में रहते थे एवं उनके प्रधान के लिए श्रेष्टी, गण, गणपति जैसे शब्दों को प्रयोग में लिया जाता था.
बढ़ई, चर्मकार, धातुकर्मी एवं सूत कातने, वस्त्र बुनने की प्रक्रिया प्रचलित थी.
उत्तर-वैदिक साहित्य में कुलालों (कुम्भकारों) एवं कुलाल-चक्र (चाक) का उल्लेख मिलता है.
'शतपथ ब्राह्मण' के अनुसार कर्ज देने, व्याज लेने की प्रथा इस काल में प्रारम्भ हो चुकी थी.
निष्क, सतमान एवं कृष्णल उत्तर-वैदिककालीन मूल्यों की महत्त्वपूर्ण इकाइयाँ थीं, जिन्हें सिक्कों की श्रेणियों में गिना जाता था.
उत्तर-वैदिककाल में सीसा, चाँदी, टिन का उपयोग किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है.

उत्तर-वैदिककालीन धार्मिक स्थिति

उत्तर-वैदिक काल का धार्मिक जीवन रूढ़िवादी, आडम्बरपूर्ण एवं कर्मकाण्ड प्रधान बन चुका था.
धार्मिक जीवन के सर्वेसर्वा पुरोहित बन गए थे.
ऋग्वैदिककालीन देवता इन्द्र, वरुण, मित्र, अग्नि का स्थान गौण हो गया था एवं शिव, विष्णु, ब्रह्मा इस काल के श्रेष्ठ देवता बन गये थे.
उत्तर-वैदिककाल में यक्ष, गन्धर्व, दिग्पाल देवताओं के सहायक के रूप में सामने आये थे.
ऋग्वैदिककालीन देवियों उषा एवं अदिति का स्थान अप्सरा एवं यक्षिणियों ने ले लिया था.
उत्तर-वैदिककाल में अवतारवाद की धारणा प्रबल हुई एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिमूर्ति स्वरूप में प्रमुख देवता बन गये.
ब्रह्मा को विश्व का सृष्टिकर्ता, रुद्र या शिव को पशुओं का देवता एवं विष्णु को पालनकर्ता माना जाता था.
पूषन् ऋग्वैदिककाल में पशुओं का देवता, शूद्रों के देवता के रूप में पहचाना जाने लगा था.
अंतरजीखेड़ा से प्राप्त गोलाकार अग्निकुण्ड एवं कौशाम्बी से प्राप्त यज्ञवेदी मूर्तिप्रथा के प्रचलन के साक्ष्य स्पष्ट करते हैं.
ब्राह्मण श्रेष्ठ समझे जाते थे एवं क्षत्रिय ब्राह्मणों के संरक्षक बन गये थे.
तप और भक्ति के स्थान पर यज्ञ एवं बलि पूर्णरूप से उत्तर-वैदिककाल में आ चुकी थी.
यज्ञों के सम्पादन में पुरोहितों का सहयोगी होना आवश्यक था.
उत्तर-वैदिककाल में राजसूय यज्ञ करने वाले पुरोहित को सोना, वस्त्र, सामान, जमीन एवं 2,40,000 गायें दान में दी जाती थीं.
गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त विभिन्न संस्कार उत्तर-वैदिककालीन संस्कृति में प्रचलित थे.
उत्तर-वैदिककाल में कर्मकाण्ड एवं आडम्बरों की भर्त्सना करने की दिशा में उपनिषदों का जन्म हुआ, जिन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया.
षड्दर्शन का उद्भव इसी काल में हुआ एवं आत्मज्ञान को मोक्षप्राप्ति का सर्वोपरि उपाय बताया.
राजसूय यज्ञ से राजा को दैवियों की प्राप्ति होती थी, जिसकी अवधि 2 वर्ष थी, वाजपेय 17 दिन की अवधि का था, जिससे नवयौवन प्राप्त किया जाता था एवं अश्वमेध यज्ञ राजा के चक्रवर्ती होने के लिए उत्तरवैदिककाल में किया जाता था.
निष्कर्ष-पूर्व वैदिक सभ्यता एवं उत्तर-वैदिक सभ्यता में अत्यधिक अन्तर था.
सरल, भक्तिमयी ऋग्वैदिक संस्कृति उत्तर-वैदिक काल में जटिलतम आडम्बरपूर्ण एवं कर्मकाण्डी बन गयी थी.
वर्ण व्यवस्था भी विकृत होकर उत्तर-वैदिक काल में जातीय व्यवस्था बन गयी थी.
इन सबके अतिरिक्त उत्तर-वैदिककालीन अर्थव्यवस्था अवश्य सुदृढ़ हो गई थी.
पूर्व-वैदिककाल तक का अस्थायी मानव उत्तर वैदिक काल में स्थायी एवं कृषि, पशु तथा अन्य व्यवसायों का मालिक बन चुका था. शिक्षा, संगठन, क्षेत्रीय राज्यों का उदय इत्यादि परिवर्तन भी उत्तर-वैदिककाल में ही हुए थे।

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