गुलाम वंश या मामलुक वंश - Slave Dynasty in Hindi

इस पोस्ट में हम Slave Dynasty in Hindi, pdf, notes, trick, को पडेंगे। 
गुलाम वंश या मामलुक वंश टॉपिक आगामी प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे- BankSSCRailwayRRBUPSC आदि में सहायक होगा। 
आप Slave Dynasty in Hindi का PDF भी डाउनलोड कर सकते है।
 Slave Dynasty in Hindi

गुलाम वंश या मामलुक वंश - Gulam Vansh Ka  Itihas

कुतुबुद्दीन ऐबक मध्य कालीन भारत में एक शासक  था
यह दिल्ली सल्तनत का पहला शासक एवं गुलाम वंश का स्थापक था।
उसने केवल चार वर्ष (1206 –1210) ही शासन किया।
वह मुहम्मद गोरी का एक गुलाम (गुलामों को सैनिक सेवा के लिए खरीदा जाता था) था।
यह पहले ग़ोरी साम्राज्य के सुल्तान मुहम्मद ग़ोरी के सैन्य अभियानों का सहायक बना और फिर दिल्ली का शासक।
इसने अपनी राजधानी लाहौर बनाई।
कुतुबमीनार की नींव इसने ही डाली थी।
क़ुतुब अल दीन (या कुतुबुद्दीन) तुर्किस्तान का निवासी था और उसके माता पिता तुर्क थे।
इस क्षेत्र में उस समय दास व्यापार का प्रचलन था और इसे लाभप्रद माना जाता था।
दासों को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण देकर उन्हें राजा के हाथ फ़रोख़्त (बेचना) करना एक लाभदायी धन्धा था।
बालक कुतुबुद्दीन इसी व्यवस्था का शिकार बना और उसे एक व्यापारी के हाथों बेच डाला गया।
व्यापारी ने उसे फ़िर निशापुर के का़ज़ी फ़ख़रूद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कूफी को बेच दिया।

अब्दुल अजीज़ ने बालक क़ुतुब को अपने पुत्र के साथ सैन्य और धार्मिक प्रशिक्षण दिया। 

पर अब्दुल अज़ीज़ की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने उसे फ़िर से बेच दिया और अंततः उसे मुहम्मद ग़ोरी ने ख़रीद लिया।
कुतुब मीनार, जो अब विश्व धरोहर है, उसके काल में निर्मित हुई थी।
मुहम्मद ग़ोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक के साहस, कर्तव्यनिष्ठा तथा स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसे शाही अस्तबल (घुड़साल) का अध्यक्ष (अमीर-ए-अखूर) नियुक्त कर दिया।
यह एक सम्मानित पद था और उसने सैन्य अभियानों में भाग लेने का अवसर मिला।
तराईन के द्वितीय युद्ध में राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान को बन्दी बनाने के बाद ऐबक को भारतीय प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त किया गया।
वह दिल्ली, लाहौर तथा कुछ अन्य क्षेत्रों का उत्तरदायी बना।

ऐबक के सैन्य अभियान

उसने गोरी के सहायक के रूप में कई क्षेत्रों पर सैन्य अभियान में हिस्सा लिया था तथा इन अभियानों में उसकी मुख्य भूमिका रही थी।
इसीसे खुश होकर गोरी उसे इन क्षेत्रों का सूबेदार नियुक्त कर गया था।
महमूद गोरी विजय के बाद राजपूताना में राजपूत राजकुमारों के हाथ सत्ता सौंप गया था पर राजपूत तुर्कों के प्रभाव को नष्ट करना चाहते थे।
सर्वप्रथम, 1192 में उसने अजमेर तथा मेरठ में विद्रोहों का दमन किया तथा दिल्ली की सत्ता पर आरूढ़ हुआ।
दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ को अपना केन्द्र बनाकर उसने भारत के विजय की नीति अपनायी।
भारत पर इससे पहले किसी भी मुस्लिम शासक का प्रभुत्व तथा शासन इतने समय तक नहीं टिका था।
जाट सरदारों ने हाँसी के किले को घेर कर तुर्क किलेदार मलिक नसीरुद्दीन के लिए संकट उत्पन्न कर दिया था।
पर ऐबक ने जाटों को पराजित कर हाँसी के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया।
सन् 1194  में अजमेर के उसने दूसरे विद्रोह को दबाया और कन्नौज के शासक जयचन्द के सातथचन्दवार के युद्ध में अपने स्वामी का साथ दिया।

1195 इस्वी में उसने कोइल (अलीगढ़) को जीत लिया। 

सन् 1196 में अजमेर के मेदों ने तृतीय विद्रोह का आयोजन किया जिसमें गुजरात के राजपूत शासक भीमदेव का हाथ था।
मेदों ने कुतुबुद्दीन के प्राण संकट में डाल दिये पर उसी समय महमूद गौरी के आगमन की सूचना आने से मेदों ने घेरा उठा लिया और ऐबक बच गया।
इसके बाद 1197 में उसने भीमदेव की राजधानी अन्हिलवाड़ा को लूटा और अकूत धन लेकर वापस लौटा।
1198-98 के बीच उसने कन्नौज, चन्दवार तथा बदायूँ पर अपना कब्जा कर लिया।
इसके बाद उसने सिरोही तथा मालवा के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया।
पर ये विजय चिरस्थायी नहीं रह सकी।
इसी साल उसने बनारस पर आक्रमण कर दिया। 1202-3 में उसने चन्देल राजा परमर्दी देव को पराजित कर कालिंजर, महोबा  पर हमला करके महोबा के राहिल देव वर्मन द्वारा नौवीं शताब्दी में निर्मित एक विशाल और प्रसिद्ध सूर्य मंदिर को ध्वस्त कर दिया और खजुराहो पर अधिकार कर अपनी स्थिति मज़बूत कर ली।
इसी समय गोरी के सहायक सेनापति बख्यियार खिलजी ने बंगाल और बिहार पर अधिकार कर लिया।
अपनी मृत्यु के पूर्व महमूद गोरी ने अपने वारिस के बारे में कुछ ऐलान नहीं किया था।
उसे शाही ख़ानदान की बजाय तुर्क दासों पर अधिक विश्वास था।
गोरी के दासों में ऐबक के अतिरिक्त गयासुद्दीन महमूद, यल्दौज, कुबाचा और अलीमर्दान प्रमुख थे।
ये सभी अनुभवी और योग्य थे और अपने आप को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना रहे थे।
गोरी ने ऐबक को मलिक की उपाधि दी थी पर उसे सभी सरदारों का प्रमुख बनाने का निर्णय नहीं लिया था।
ऐबक का गद्दी पर दावा कमजोर था पर उसने विषम परिस्थितियों में कुशलता पूर्वक काम किया और अंततः दिल्ली की सत्ता का शासक बना।

इल्तुतमिश

1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतन्त्र शासक 'हिसामुद्दीन इवाज' के विरुद्ध अभियान छेड़ा।
इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, पर इल्तुतमिश के पुनः दिल्ली लौटते ही उसने फिर से विद्रोह कर दिया।
इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया।
दो वर्ष के उपरान्त नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। 

संघर्ष में बल्का ख़लजी मारा गया और इस बार एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया।
1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथंभौर पर तथा 1227 ई. में परमरों की राजधानी मन्दौर पर अधिकार कर लिया।
नागदा को लेकर इल्तुतमिश व मेवाड़ के जैत्र सिंह के बीच 1227 ई. में भूताला का युद्ध लड़ा गया, हालाँकि इस युद्ध में जैत्र सिंह को विजय श्री प्राप्त हुई। 
1231 ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को पराजित किया।
1233 ई. में चंदेलों के विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में उज्जैन एवं भिलसा के विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा।

वैध सुल्तान एवं उपाधि

इल्तुतमिश के नागदा के गुहिलौतों और गुजरात चालुक्यों पर किए गए आक्रमण विफल हुए।
इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बामियान के विरुद्ध हुआ।
फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ।
ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उन सारे क्षेत्रों में कर दी, जो उसने जीते थे।
साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी प्रदान की।
प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं दिल्ली सल्तनत एक वैध स्वतन्त्र राज्य बन गई।
इस स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी सन्तानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली।
खिलअत मिलने के बाद इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की।

इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। 

उसने सल्तनत कालीन दो महत्त्वपूर्ण सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175 ग्रेन) तथा 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया।
इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ किया।
सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया है।
ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य व धर्म का सूर्य”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”।
इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।

मृत्यु

बामियान अभियान पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया।
इसके बाद इल्तुतमिश की बीमारी बढती गई।
अन्ततः 30 अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई।
इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।

सुल्तान रुकनुद्दीन फिरोज

रुकनुद्दीन फिरोज 1236 में अपनी माता शाह तुरकाना के संरक्षण में सुल्तान घोषित किया गया।
रुकनुद्दीन फिरोज की आलसी और विलासी प्रवृति होने के कारण यह किसी भी शासन के कार्यों में भाग नहीं लेता था जिसके चलते अधिकारी वर्ग के लोग जनता पर हावी हो रहे थे। 
रुकनुद्दीन फिरोज कुछ ही महीनों तक सुल्तान बना उसके बाद जनता के विद्रोह के कारण रजिया सुल्तान को सुल्ताना बनाया गया।

रज़िया सुल्तान

रज़िया सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी।
अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था।
इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई।
सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे।
अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
स्थापत्य कला के अन्तर्गत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य (कुतुबमीनार) को पूरा करवाया।
भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है।
इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया।
उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की।
इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।

मुइज़ुधिन बहराम शाह (1240-42)

1240 में रजिया सुल्तान की हत्या के बाद मुइजुधिन बहराम शाह सुलतान बना। 
बहराम शाह के शासन काल में 1241 में मंगोलों का आक्रमण हुआ जिसमें बहराम शाह मारा गया।
मंगोलों ने पंजाब पर हमला किया था।

अलाउद्दीन मसूद शाह (1242-46)

बहराम शाह की मृत्यु के बाद 1242 में फिरोज शाह का पुत्र मसूद शाह सिहासन पर बैठा।
मसूद शाह ने बलबन को अमीर- ए- हाजिब की उपाधि प्रदान की।

गयासुद्दीन बलबन (1265-1290)

गयासुद्दीन बलबन दिल्ली सल्तनत का नौवां सुल्तान था। वह 1266 में दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बना।
उसने अपने शासनकाल में चालीसा की शक्ति को क्षीण किया और सुल्तान को पद को पुनः गरिमामय बनाया।
बलबन गुलाम वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था।
बलबन, इल्तुतमिश का दास था। इल्तुतमिश ने बलबन को खासदार नियुक्त किया था। इसके बाद बलबन को हांसी का इक्तादार भी नियुक्त किया गया।
बलबन ने नासिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। नासिरुद्दीन को सुल्तान बनाकर बलबन ने अधिकतर अधिकार अपने नियंत्रण में ले लिए थे।
नासिरुद्दीन महमूद ने गियासुद्दीन बलबन को उलूग खां की उपाधि दी थी।
नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद बलबन सुल्तान बना।
बलबन के चार पुत्र थे सुल्तान महमूद, कैकुबाद, कैखुसरो और कैकआउस।

बलबन का असली नाम बहाउधिन था। 

यह इल्तुतमिश के बाद  गुलाम वंश का दूसरा इलब्री तुर्क था। 
शासक बनने के बाद इसने सबसे पहले सेना का पुर्नगठन किया। सेना को दीवाने - ए- आरिज कहा जाता था।
बलबन ने सिजदा और पेबोस प्रथा की शुरुआत की।
इसने जिले - ए- इलाही तथा नियाबते खुदाई की उपाधि धारण की। 
बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा बनाए गए चालीसा दल को समाप्त किया।
नसीरुद्दीन ने बलबन को उलुग खां की उपाधि दी। 

Post a Comment

1 Comments

Please do not enter any spam link in the comment box